देश को परिपक्व गृह मन्त्री की दरकार

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    चिदम्बरम हो सकते हैं पार्टी के लाडले, पर गृह मन्त्री के कद के अनुरूप नहीं


    नक्सलियों की ताकत को कमतर आंक गई सरकार

    इस हमले की जिम्मेदारी निर्धारित करनी ही होगी


    (लिमटी खरे)


    (देश के 76 जांबाज नक्सलियों के हाथों शहीद हो गए हैं, उनके परिवार पर क्या बीत रही होगी इस बात का अन्दाज नहीं लगाया जा सकता है। कुल मिलाकर चूक कहीं न कहीं तो हुई है, जो इतनी बडी तादाद में नुकसान झेलना पडा है। इसकी जवाबदेही तय करना ही होगा, वरना आने वाले सालों में देश किस रास्ते पर चलने लगेगा कहा नहीं जा सकता है। इस घटना के बाद सरकार को जगाने के लिए एक अभियान अवश्य चलाया जाना चाहिए। आज से हम नक्सलवाद पर जानकारियां और सरकार की बचकानी नीतियों की आलोचना और जमीनी हकीकत से लवरेज धारावाहिक आरम्भ कर रहे हैं। सुधी पाठकगण, मीडिया के मित्रों से आग्रह है कि वे भी सरकार को जगाने के लिए आगे आएं, वैसे कहा गया है कि सोते हुए को जगाया जा सकता है, जो सोने का नाटक करे उसे कोई भी नहीं जगा सकता। पर हम प्रयास ही कर सकते हैं। पाठकगणों का सहयोग आपेक्षित है, आपका मार्गदर्शन और सहयोग इस अभियान को किसी मंजिल तक अवश्य ही पहुंचाएगा, एसी आशा है)

    देश की आर्थिक राजधानी मुम्बई में अब तक का सबसे बडा आतंकी हमला पाकिस्तान के इशारे पर हुआ या नहीं इसका खुलासा अभी तक आधिकारिक तौर पर नहीं हो सका है, किन्तु छत्तीगढ में अब तक का सबसे बडा नक्सली हमला देश के ही नक्सलवादियों ने किया है, यह बात आईने की तरह साफ हो चुकी है। खुफिया तन्त्र, पुलिस तन्त्र, पेरा मिलिट्री फोर्स, केन्द्र और राज्य सरकार की तमाम सावधानियों के बाद भी जिस तरह से देश के 76 जांबाज शहीद हुए उसे हल्के में नहीं लिया जा सकता है। इस घटना की महज निन्दा करने से काम नहीं चलने वाला।


    कांग्रेस हो या भाजपा दोनों ही बडे सियासी दलों के साथ ही साथ अन्य राजनैतिक दल सत्ता के मद में चूर मदमस्त हाथी की चाल चल रहे हैं। देशवासी आज अलगाववाद, आतंकवाद, नक्सलवाद, भाषा वाद, क्षेत्रवाद जैसी इक्कीसवीं सदी की कुरितियों से बुरी तरह भयाक्रान्त हैं और देश के निजाम नीरो के मानिन्द चैन की बंसी बजा रहे हैं। वे मजे से नीन्द क्यों न लें, आखिर उन्हें किस बात की कमी है। खजाना जनता के लिए ही खाली है, निजामों और जनसेवकों की पगार, सुरक्षा और सुखसुविधाओं में तो रोज ही बढोत्तरी हो रही है। उनके इर्द गिर्द तो परिन्दा भी पर नहीं मार सकता है।

    भारत का खुफिया तन्त्र कितना पंगु और देश के निजाम कितने नपुंसक हो गए हैं, इसके एक नहीं अनेकों उदहारण हैं। हमारे घर (हिन्दुस्तान) में घुसकर बाहर के आतातायी आकर कहर बरपाकर आसानी से चले जाते हैं और हम लकीरें ही पीटते रह जाते हैं। हद तो उस वक्त हो गई थी जब खुफिया तन्त्र की नाकामी के चलते 2008 में मुम्बई पर आतंकियों ने सबसे बडे हमले को अंजाम दिया था, उसके बाद अब नक्सलवादियों ने देश के सरमायादारों को जता दिया है कि उनकी चेतावनियों, सख्ती जैसी गीदड भभकियों पर उनके इरादे कहीं भारी हैं। इस नाकामी से निश्चित तौर पर नक्सलवादियों को अपना कार्यक्षेत्र बढाने में मदद मिलेगी। मंहगाई और भ्रष्टाचार से टूटी देश की जनता के मन में अब कानून के बजाए नक्सलवादियों का डर घर कर जाए तो किसी को अश्चर्य नहीं होना चाहिए। हमें कहने में कोई संकोच नहीं कि सरकार और विपक्षी दल मिलकर नूरा कुश्ती लड रहे हैं, अगर किसी घटना या दुघZटना पर मन्त्री, मुख्यमन्त्री का त्यागपत्र मांगा जाता है तो निश्चित तौर पर उसमें कहीं न कहीं सियासी मकसद जबर्दस्त रूप से हावी होता है। अब जनता के लिए लडने का माद्दा जनसेवकों में बचा ही नहीं है। इस हमले के बाद यह साफ हो गया है कि देश पर हुकूमत करने वालों की साठ साल की प्रशासनिक और राजनैतिक विफलता की परिणिति है यह बर्बर आतंक।

    देश के गृह सचिव जी.के.पिल्लई बडी ही साफगोई से कहते हैं कि जिस इलाके में आपरेशन ग्रीन हंट चलाया जा रहा था, वह पूरी तरह से नक्सली कब्जे में था। कांग्रेस की सबसे ताकतवर नेत्री सोनिया गांधी, प्रधानमन्त्री डॉ.मनमोहन सिंह, गृह मन्त्री पी.चिदम्गरम सहित चुने हुए या पिछले दरवाजे से आए जनसेवकों को शर्म आनी चाहिए कि आजादी के छ: दशक बाद भी देश के कई इलाके एसे हैं जहां भारत सरकार का नहीं वरन देश को तोडने वाली ताकतों की हुकूमत चलती है। भव्य और एयर कण्डीशन्ड कमरों, महंगी कारो, विमानों में सफर करने वाले जनसेवकों को अगर कडकडाती धूप में एक दिन इन जवानों के साथ जंगलों में खाक छानने भेज दिया जाए तो इनकी तबियत बिगड जाएगी।

    1967 में पश्चिम बंगाल के नक्सलवाडी से आरम्भ हुआ नक्सलवाद आज 43 साल की उमर को पा चुका है। आजाद भारत में विडम्बना तो देखिए कि 43 साल में केन्द्र और सूबों में न जाने कितनी सरकारें आईं और गईं पर किसी ने भी इस बीमारी को समूल खत्म करने की जहमत नहीं उठाई। उस दौरान चारू मजूमदार और कानू सन्याल ने सत्ता के खिलाफ सशस्त्र आन्दोलन की नींच रखी थी। इस आन्दोलन का नेतृत्व करने वाले चारू मजूमदार और जंगल सन्थाल के अवसान के साथ ही यह आन्दोलन एसे लोगों के हाथों में चला गया जिनके लिए निहित स्वार्थ सर्वोपरि थे, परिणाम स्वरूप यह आन्दोलन अपने पथ से भटक गया। कोई भी केन्द्रीय नेतृत्व न होने के कारण यह आन्दोलन अराजकता का शिकार हो गया। चीन के क्रान्तिकारी नेता माओत्से तुग को आदर्श मानते हैं नक्सली। नक्सलियों का नारा यही रहा है कि बन्दूक की गोली से निकलती है, सत्ता।

    यह जानकर सरकार को तो नहीं किन्तु आम आदमी को आश्चर्य ही होगा कि नक्सलियों का चौथ वसूली का सालाना राजस्व 1500 करोड रूपए से अधिक का है। इसका अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पिछले साल बिहार में नक्सलियों से पुलिस ने छ: लाख 84 हजार 140 रूपए तो इस साल महज तीन महीनों में ही 21 लाख 76 हजार 370 रूपए बरामद किए हैं। बताते हैं कि बालाघाट में नब्बे के दशक में नक्सलियों द्वारा उडाई गई एक पुलिस वेन के उपरान्त हुई पुलिस कार्यवाही के बाद मारे गए नक्सली की जेब से रंगदारी टेक्स वसूली की पर्ची भी मिली थी, जिसमें सबसे उपर बिठली चौकी के थाना प्रभारी द्वारा 5000 रूपए देना अंकित था।

    इस घटना ने साबित कर दिया है कि देश के गृहमन्त्री जैसे जिम्मेदार ओहदे पर अब किसी के चहेते नहीं वरन वल्लभ भाई पटेल की छवि वाले जनसेवक की आवश्यक्ता है। वर्तमान गृहमन्त्री की नाकामी साफ परिलक्षित हो रही है। अतिउत्साह में उन्होंने आपरेशन ``गीन हंट`` की परिकल्पना कर उसे अमली जामा अवश्य पहना दिया। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि पलनिअप्पम चिदम्बरम के पास अनुभव की कमी है, वरना कौन होगा जो जमीनी भूगोल से परिचित कराए बिना इतने सारे जवानों को मौत के मुंह में ढकेलने का जोखम उठाएगा! केन्द्रीय गृह मन्त्री चिदम्बरम ने नक्सलियों की ताकत को कम आंका है, यह बात भी उतनी ही सच है जितनी कि दिन और रात। सरकार को नक्सलियों से लडने अपने तौर तरीकों में अमूल चूल बदलाव लाने ही होंगे, वरना आने वाले समय में देश के न जाने कितने सिपाही इस तरह काल कलवित होते रहेंगे।

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